Daughter Property Rights – भारत जैसे देश में जहां सदियों से बेटियों को संपत्ति में सिर्फ “मेहमान” समझा जाता रहा है, वहां सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में आया एक फैसला नई रोशनी लेकर आया है। ये फैसला न सिर्फ महिलाओं के अधिकारों को सशक्त करता है बल्कि एक सशक्त और बराबरी वाले समाज की ओर भी बड़ा कदम है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि अगर किसी पिता ने कोई वसीयत नहीं बनाई है और वो संयुक्त परिवार का हिस्सा था, तो उसकी संपत्ति में बेटी को पहले हक मिलेगा – वो भी भाई के बेटों से पहले।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला तमिलनाडु से जुड़ा है जहां एक व्यक्ति की 1949 में मौत हो गई थी। उस व्यक्ति की अपनी कोई संतान नहीं थी, लेकिन उसकी एक बेटी थी। समय बीतने के बाद जब संपत्ति का मामला सामने आया तो मृतक के भाई के बेटों ने इस पर दावा ठोक दिया। मद्रास हाई कोर्ट ने भी शुरुआत में भतीजों के हक में फैसला दे दिया था, लेकिन मामला यहीं नहीं रुका। बेटी के वारिसों ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी और वहां से जो फैसला आया, वो देश की हजारों बेटियों के लिए उम्मीद की किरण बन गया।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर और जस्टिस कृष्ण मुरारी शामिल थे, ने कहा कि बेटी को उसके पिता की संपत्ति में पूरा अधिकार है। यह अधिकार केवल बेटे के बराबर ही नहीं है बल्कि कुछ मामलों में उससे भी ऊपर हो सकता है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अगर किसी व्यक्ति का कोई बेटा नहीं है तो उसकी संपत्ति उसके भाई के बेटे को नहीं बल्कि उसकी बेटी को मिलेगी।
1956 से पहले के मामलों पर भी लागू होगा यह फैसला
इस फैसले की एक और खास बात यह है कि यह केवल नए मामलों पर ही नहीं, बल्कि पुराने यानी 1956 से पहले के संपत्ति बंटवारे के मामलों पर भी लागू होगा। यानी वो महिलाएं जिन्हें दशकों पहले उनके हक से वंचित कर दिया गया था, अब अपने हिस्से का दावा कर सकती हैं। यह उन हजारों संपत्ति विवादों के लिए उम्मीद की किरण है जो सालों से अदालतों में लटके हुए हैं।
हिंदू उत्तराधिकार कानून में स्पष्टता
हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में लागू हुआ था, जिसमें बेटियों को संपत्ति में बराबर का हक दिया गया था। लेकिन समाज में आज भी बहुत से लोग इस अधिकार को नहीं मानते या फिर जानबूझकर नजरअंदाज करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि बेटी को सिर्फ शादी के बाद विदा नहीं किया जाता, बल्कि वह अपने पिता की संपत्ति में भी बराबरी से हक रखती है।
सामाजिक सोच में बदलाव की जरूरत
कानून तो अब बेटियों के साथ खड़ा हो गया है, लेकिन असली लड़ाई सामाजिक सोच से है। आज भी कई परिवारों में यह धारणा है कि शादी के बाद बेटी पराया धन हो जाती है और संपत्ति पर उसका कोई अधिकार नहीं रहता। यह सोच ही असल में सबसे बड़ी चुनौती है जिसे बदलने की ज़रूरत है।
ग्रामीण भारत में बदलाव की उम्मीद
इस फैसले से खासकर ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को बड़ा सहारा मिलेगा। गांवों में आज भी महिलाएं अपने हकों के लिए आवाज़ नहीं उठा पातीं। लेकिन जब उन्हें पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट उनके साथ है, तो वे न सिर्फ बोलेंगी, बल्कि कानूनी रास्ता भी अपनाएंगी।
जानकारी और जागरूकता की कमी
एक और बड़ी समस्या यह है कि बहुत सी महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में जानती ही नहीं हैं। उन्हें नहीं मालूम कि वे संपत्ति में बराबरी की हकदार हैं। ऐसे में सरकार और समाज को मिलकर उन्हें कानूनी जानकारी और सहयोग देना होगा ताकि वे अपने अधिकार का प्रयोग कर सकें।
क्या करें महिलाएं अगर संपत्ति में हक से वंचित हो गई हैं?
अगर किसी महिला को लगता है कि उसे अपने पिता की संपत्ति से बेदखल कर दिया गया है, तो वह तुरंत कानूनी सलाह ले सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अब उसकी ढाल बन सकता है। वह जिला कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट और जरूरत पड़े तो सुप्रीम कोर्ट तक जा सकती है, और अपने हक की लड़ाई लड़ सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सिर्फ कानून की किताबों में दर्ज एक नियम नहीं है, यह असल में सामाजिक क्रांति की ओर बढ़ाया गया एक कदम है। यह फैसला एक संदेश है कि बेटियां अब सिर्फ जिम्मेदारी नहीं रहीं, वे अधिकारों की हकदार हैं। अब उन्हें ना सिर्फ बराबरी का हक मिलेगा, बल्कि वो कानूनी रूप से अपने हक की रक्षा भी कर पाएंगी।